सुब्ह बिछड़ कर शाम का व'अदा शाम का होना सहल नहीं
उन की तमन्ना फिर कर लेना सुब्ह को पहले शाम करो
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ये भी हुआ कि दर न तिरा कर सके तलाश
दिल में क्या क्या गुमाँ गुज़रते हैं
मौसम-ए-गुल है बादल छाए खनक रहे हैं पैमाने
बसर करे जो मुजाहिदाना हयात उसे दाइमी मिलेगी
निगाहों से ना-आश्ना चंद जल्वे
ले के दिल कहते हो उल्फ़त क्या है
बरसों से तिरा ज़िक्र तिरा नाम नहीं है
ये दिल वालों से पूछो इस को दिल वाले समझते हैं
अब भी जो लोग सर-ए-दार नज़र आते हैं
छुपे तो कैसे छुपे चमन में मिरा तिरा रब्त-ए-वालिहाना
तू ने वो सोज़ दिया है कि इलाही तौबा