Couplets Poetry (page 311)
तुर्रा-ए-काकुल-ए-पेचां रुख़-ए-नूरानी पर
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
राह से दैर-ओ-हरम की है जो कू-ए-यार में
मिस्कीन शाह
ख़फ़ा भी हो के जो देखे तो सर निसार करूँ
मिस्कीन शाह
दैर से काबा गए काबा से माबदगाह में
मिस्कीन शाह
छोड़ दें दैर-ओ-हरम कुफ़्र और इस्लाम के लोग
मिस्कीन शाह
ब'अद मुद्दत गर्दिश-ए-तस्बीह से 'मिस्कीं' हमें
मिस्कीन शाह
ख़ुशनुमा मंज़र भी सब धुंधले नज़र आते हैं यार
मिस्दाक़ आज़मी
ग़ार वालों की तरह निकला है वो कमरे से आज
मिस्दाक़ आज़मी
फ़क़त मिलना-मिलाना कम हुआ है
मिस्दाक़ आज़मी
इक तबस्सुम का भरम आबाद होंटों पर किए
मिस्दाक़ आज़मी
ऐ मिरे मूनिस ओ ग़म-ख़्वार मुझे मरने दे
मिस्दाक़ आज़मी
मुट्ठी से जिस तरह कोई जुगनू निकल पड़े
मीसम अली आग़ा
साबित ये कर रहा हूँ कि रहमत-शनास हूँ
मिर्ज़ा शौक़ लखनवी
मौत से किस को रुस्तगारी है
मिर्ज़ा शौक़ लखनवी
गेसू रुख़ पर हवा से हिलते हैं
मिर्ज़ा शौक़ लखनवी
गए जो ऐश के दिन मैं शबाब क्या करता
मिर्ज़ा शौक़ लखनवी
देख लो हम को आज जी भर के
मिर्ज़ा शौक़ लखनवी
चमन में शब को घिरा अब्र-ए-नौ-बहार रहा
मिर्ज़ा शौक़ लखनवी
बुतों को चाह के हम तो अज़ाब ही में रहे
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
ज़ाहिद का दिल न ख़ातिर-ए-मय-ख़्वार तोड़िए
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
या ख़फ़ा होते थे हम तो मिन्नतें करते थे आप
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
तलाश इस तरह बज़्म-ए-ऐश में है बे-निशानों की
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
सुनता हूँ न कानों से न कुछ मुँह से हूँ बकता
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
सहरा में 'हवस' ख़ार-ए-मुग़ीलाँ की मदद से
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
सद-चाक किया पैरहन-ए-गुल को सबा ने
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
सब हम-सफ़ीर छोड़ के तन्हा चले गए
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
रंग-ए-गुल-ए-शगुफ़्ता हूँ आब-ए-रुख़-ए-चमन हूँ मैं
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
न पाया वक़्त ऐ ज़ाहिद कोई मैं ने इबादत का
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
न काफ़िर से ख़ल्वत न ज़ाहिद से उल्फ़त
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस