Couplets Poetry (page 313)
पीरी हुई शबाब से उतरा झटक गया
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
फाड़ ही डालूँगा मैं इक दिन नक़ाब-ए-रू-ए-यार
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
न बंद कर इसे फ़स्ल-ए-बहार में साक़ी
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
मुसाफ़िराना रहा इस सरा-ए-हस्ती में
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
मुझ सा आशिक़ आप सा माशूक़ तब होवे नसीब
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
लतीफ़ रूह के मानिंद जिस्म है किस का
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ख़ुद रहम कीजिए दिल-ए-उम्मीद-वार पर
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ख़याल उस सफ़-ए-मिज़्गाँ का दिल में आएगा
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
कभी हरम में कभी बुत-कदे को जाता हूँ
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
काबा-ओ-दैर एक समझते हैं रिंद-ए-पाक
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
जिसे ज़ौक़-ए-बादा-परस्ती नहीं है
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
जिधर को मिरी चश्म-ए-तर जाएगी
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
है ख़ुशी अपनी वही जो कुछ ख़ुशी है आप की
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
है दौलत-ए-हुस्न पास तेरे
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
दुनिया का माल मुफ़्त में चखने के वास्ते
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
बोसा जो माँगा बज़्म में फ़रमाया यार ने
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
बाल खोले नहीं फिरता है अगर वो सफ़्फ़ाक
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
बा'द मरने के ठिकाने लग गई मिट्टी मिरी
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
अज़ाँ दे के नाक़ूस को फूँक कर
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
असीर कर के हमें हुक्म दे गया सय्याद
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
आया पयाम-ए-वस्ल यकायक जो यार का
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
नमी सी थी दम-ए-रुख़्सत कुछ उन के आँचल पर
मिर्ज़ा महमुद सरहदी
ये फ़क़त आप की इनायत है
मिर्ज़ा हादी रुस्वा
उन्हीं का नाम ले ले कर कोई फ़ुर्क़त में मरता है
मिर्ज़ा हादी रुस्वा
टलना था मेरे पास से ऐ काहिली तुझे
मिर्ज़ा हादी रुस्वा
मरने के दिन क़रीब हैं शायद कि ऐ हयात
मिर्ज़ा हादी रुस्वा