मुझ सा आशिक़ आप सा माशूक़ तब होवे नसीब
जब ख़ुदा इक दूसरा अर्ज़-ओ-समा पैदा करे
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अज़ाँ दे के नाक़ूस को फूँक कर
फ़ुग़ान-ओ-आह है हर-दम पुकार रखता है
नफ़्स-ए-सग-ए-पलीद को गर अपने मारिए
यूँ इंतिज़ार-ए-यार में हम उम्र भर रहे
दुनिया का माल मुफ़्त में चखने के वास्ते
जौर-ए-अफ़्लाक बस-कि झेले हैं
तेरे बाज़ार-ए-दहर में गर्दूं
मुसाफ़िराना रहा इस सरा-ए-हस्ती में
करते हैं चैन बैठे हुस्न-ओ-जमाल वाले
मंसूर पीते ही मय-ए-उल्फ़त बहक गया
उस बुत को छोड़ कर हरम-ओ-दैर पर मिटे
जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर