तेरे बाज़ार-ए-दहर में गर्दूं
हम भी आए हैं इक क़बा के लिए
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फ़ुग़ान-ओ-आह से पैदा किया दर्द-ए-जुदाई को
हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह
क़ातिल-ए-आलम से क्या याराना है
आया पयाम-ए-वस्ल यकायक जो यार का
जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
बाल खोले नहीं फिरता है अगर वो सफ़्फ़ाक
कभी हरम में कभी बुत-कदे को जाता हूँ
जिसे ज़ौक़-ए-बादा-परस्ती नहीं है
यूँ इंतिज़ार-ए-यार में हम उम्र भर रहे
है दौलत-ए-हुस्न पास तेरे
जौर-ए-अफ़्लाक बस-कि झेले हैं