तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
हुआ के दम से ये मुश्त-ए-ग़ुबार बाक़ी है
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फाड़ ही डालूँगा मैं इक दिन नक़ाब-ए-रू-ए-यार
होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ
सिखला रहा हूँ दिल को मोहब्बत के रंग-ढंग
बोसा जो माँगा बज़्म में फ़रमाया यार ने
जिसे ज़ौक़-ए-बादा-परस्ती नहीं है
मंसूर पीते ही मय-ए-उल्फ़त बहक गया
तेरे बाज़ार-ए-दहर में गर्दूं
मुझ सा आशिक़ आप सा माशूक़ तब होवे नसीब
सर-सर गेसू हिला रही है
ख़ुद रहम कीजिए दिल-ए-उम्मीद-वार पर
बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव