फाड़ ही डालूँगा मैं इक दिन नक़ाब-ए-रू-ए-यार
फेंक दूँगा खोद कर गुलज़ार की दीवार को
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कली जो गुल की चटक रही है तबीअ'त अपनी खटक रही है
कभी हरम में कभी बुत-कदे को जाता हूँ
है ख़ुशी अपनी वही जो कुछ ख़ुशी है आप की
सर-सर गेसू हिला रही है
हुस्न की दिल में मिरे जल्वागरी रहती है
क़ातिल-ए-आलम से क्या याराना है
करते हैं चैन बैठे हुस्न-ओ-जमाल वाले
जिसे ज़ौक़-ए-बादा-परस्ती नहीं है
जिधर को मिरी चश्म-ए-तर जाएगी
है दौलत-ए-हुस्न पास तेरे
काबा-ओ-दैर एक समझते हैं रिंद-ए-पाक
बोसा जो माँगा बज़्म में फ़रमाया यार ने