काबा-ओ-दैर एक समझते हैं रिंद-ए-पाक
पाबंद ये नहीं हैं हराम-ओ-हलाल के
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मुमकिन मुझे जो हो बे-रिया हो
बोसा जो माँगा बज़्म में फ़रमाया यार ने
आया पयाम-ए-वस्ल यकायक जो यार का
मुब्तला ये दिल हुआ जब यार नंगा हो गया
मंसूर पीते ही मय-ए-उल्फ़त बहक गया
करते हैं चैन बैठे हुस्न-ओ-जमाल वाले
बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव
है दौलत-ए-हुस्न पास तेरे
दैर-ओ-हरम को छोड़ के ऐ दिल चल बैठो मयख़ाने में
सदा-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे नहीं आती
सर-सर गेसू हिला रही है
जिसे ज़ौक़-ए-बादा-परस्ती नहीं है