बोसा जो माँगा बज़्म में फ़रमाया यार ने
ये दिन दहाड़े आए हैं पगड़ी उतारने
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ये जिस ने जान दी है नान देगा
क़ातिल-ए-आलम से क्या याराना है
सर-सर गेसू हिला रही है
जिधर को मिरी चश्म-ए-तर जाएगी
उस बुत को छोड़ कर हरम-ओ-दैर पर मिटे
बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव
मुमकिन मुझे जो हो बे-रिया हो
जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
फ़ुग़ान-ओ-आह से पैदा किया दर्द-ए-जुदाई को
मीठी है ऐसी बात उस की
अज़ाँ दे के नाक़ूस को फूँक कर
न बंद कर इसे फ़स्ल-ए-बहार में साक़ी