फ़ुग़ान-ओ-आह से पैदा किया दर्द-ए-जुदाई को

फ़ुग़ान-ओ-आह से पैदा किया दर्द-ए-जुदाई को

ग़ज़ब में जान को डाला जता कर आश्नाई को

मिटाया पास-ए-रुस्वाई से मेरी आश्नाई को

बिछाऊँ आप की इस्मत को ओढूँ पारसाई को

न आया बा'द-ए-मुर्दन भी लहद पर फ़ातिहा पढ़ने

मैं इतना भी न समझा था तिरी ना-आश्नाई को

न दिल अपना हुआ अपना न इक बुत पर हुआ क़ाबू

करेंगे याद किया हम ऐ ख़ुदा तेरे ख़ुदाई को

किसी महफ़िल में जिस दम ज़िक्र-ए-शम-ए-तूर होता है

दिखा देते हैं वो जल कर सर-अंगुश्त-ए-हिनाई को

फ़क़ीर-ए-बे-नवा उस के दर-ए-दौलत का है बंदा

ग़नीमत जानते हैं शाह तक जिस की गदाई को

असर पैदा करेगी आह अपनी यार के दिल में

निशाने तक ख़ुदा पहुँचाएगा तीर-ए-हवाई को

कभी है फ़िक्र दुनिया की कभी उक़्बा का धड़का है

उतारूँ जामा-ए-तन से मैं क्यूँकर इस दुलाई को

गरेबाँ हाथ आता है न सहरा तक पहुँचता हूँ

ख़ुदा के वास्ते देखो मिरे बे-दस्त-ओ-पाई को

फ़लक वो तफ़रक़ा-पर्वाज़-ए-आलम है दिला सर पर

ग़नीमत जानता हूँ गोर तक अपनी रसाई को

शिकस्ता-दिल हैं हर दम हर घड़ी हैं जान के लाले

करूँ क्या नोश-दारो को मैं क्या लूँ मूसियाई को

तमन्ना-ए-दिली ने 'मुंतही' खोया मशीख़त को

मिलाया ख़ाक में दस्त-ए-हवस ने मीरज़ाई को

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