मुसाफ़िराना रहा इस सरा-ए-हस्ती में
चला फिरा मैं ज़माने में रहगुज़र की तरह
Anwar Masood
Javed Akhtar
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Allama Iqbal
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Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
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उमीद है हमें फ़र्दा हो या पस-ए-फ़र्दा
न बंद कर इसे फ़स्ल-ए-बहार में साक़ी
जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
मंसूर पीते ही मय-ए-उल्फ़त बहक गया
नफ़्स-ए-सग-ए-पलीद को गर अपने मारिए
हमेशा सैर-ए-गुल-ओ-लाला-ज़ार बाक़ी है
तेरे बाज़ार-ए-दहर में गर्दूं
बोसा जो माँगा बज़्म में फ़रमाया यार ने
जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर
कभी हरम में कभी बुत-कदे को जाता हूँ
जवानी की हालत गुज़र जाएगी