जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर
वो हुआ जामे से बाहर मैं भी नंगा हो गया
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हमेशा सैर-ए-गुल-ओ-लाला-ज़ार बाक़ी है
मंसूर पीते ही मय-ए-उल्फ़त बहक गया
काबा-ओ-दैर एक समझते हैं रिंद-ए-पाक
मुसाफ़िराना रहा इस सरा-ए-हस्ती में
रह गए अश्कों में लख़्त-ए-जिगर आते आते
उमीद है हमें फ़र्दा हो या पस-ए-फ़र्दा
ये जिस ने जान दी है नान देगा
दर पे उस शोख़ के जब जा बैठा
सिखला रहा हूँ दिल को मोहब्बत के रंग-ढंग
बाल खोले नहीं फिरता है अगर वो सफ़्फ़ाक
तारिक-ए-दुनिया है जब से 'मुंतही'
फाड़ ही डालूँगा मैं इक दिन नक़ाब-ए-रू-ए-यार