जिधर को मिरी चश्म-ए-तर जाएगी
उधर काम दरिया का कर जाएगी
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मुब्तला ये दिल हुआ जब यार नंगा हो गया
काबा-ओ-दैर एक समझते हैं रिंद-ए-पाक
जिसे ज़ौक़-ए-बादा-परस्ती नहीं है
तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
कभी हरम में कभी बुत-कदे को जाता हूँ
दर पे उस शोख़ के जब जा बैठा
ख़ुद रहम कीजिए दिल-ए-उम्मीद-वार पर
न बंद कर इसे फ़स्ल-ए-बहार में साक़ी
तोहमत-ए-जुर्म-ओ-ख़ता हिर्स-ओ-हवा ग़फ़लत-ए-दिल
ये जिस ने जान दी है नान देगा
बा'द मरने के ठिकाने लग गई मिट्टी मिरी
बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव