बा'द मरने के ठिकाने लग गई मिट्टी मिरी
ख़ाक से आशिक़ की क्या क्या यार के साग़र बने
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करते हैं चैन बैठे हुस्न-ओ-जमाल वाले
तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
तेरे बाज़ार-ए-दहर में गर्दूं
जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर
रह गए अश्कों में लख़्त-ए-जिगर आते आते
ये जिस ने जान दी है नान देगा
सुब्ह-दम उठ कर तिरा पहलू से जाना याद है
जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
मुमकिन मुझे जो हो बे-रिया हो
लतीफ़ रूह के मानिंद जिस्म है किस का
सर-सर गेसू हिला रही है
बोसा जो माँगा बज़्म में फ़रमाया यार ने