लतीफ़ रूह के मानिंद जिस्म है किस का
पियादा कौन वक़ार-ए-सवार रखता है
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हमेशा सैर-ए-गुल-ओ-लाला-ज़ार बाक़ी है
असीर कर के हमें हुक्म दे गया सय्याद
अज़ाँ दे के नाक़ूस को फूँक कर
कली जो गुल की चटक रही है तबीअ'त अपनी खटक रही है
मंसूर पीते ही मय-ए-उल्फ़त बहक गया
जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
करते हैं चैन बैठे हुस्न-ओ-जमाल वाले
तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
दैर-ओ-हरम को छोड़ के ऐ दिल चल बैठो मयख़ाने में
न बंद कर इसे फ़स्ल-ए-बहार में साक़ी
हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह