अज़ाँ दे के नाक़ूस को फूँक कर
तुझे हर तरह कब पुकारा नहीं
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सदा-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे नहीं आती
होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ
सुब्ह-दम उठ कर तिरा पहलू से जाना याद है
करते हैं चैन बैठे हुस्न-ओ-जमाल वाले
तारिक-ए-दुनिया है जब से 'मुंतही'
है दौलत-ए-हुस्न पास तेरे
दर पे उस शोख़ के जब जा बैठा
बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव
हमेशा सैर-ए-गुल-ओ-लाला-ज़ार बाक़ी है
मुब्तला ये दिल हुआ जब यार नंगा हो गया
जिधर को मिरी चश्म-ए-तर जाएगी
जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर