है दौलत-ए-हुस्न पास तेरे
देता नहीं क्यूँ ज़कात इस की
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फ़ुग़ान-ओ-आह है हर-दम पुकार रखता है
मुमकिन मुझे जो हो बे-रिया हो
होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ
जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर
हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह
फाड़ ही डालूँगा मैं इक दिन नक़ाब-ए-रू-ए-यार
मुब्तला ये दिल हुआ जब यार नंगा हो गया
बा'द मरने के ठिकाने लग गई मिट्टी मिरी
यूँ इंतिज़ार-ए-यार में हम उम्र भर रहे
उस बुत को छोड़ कर हरम-ओ-दैर पर मिटे
हुस्न की दिल में मिरे जल्वागरी रहती है
मीठी है ऐसी बात उस की