यूँ इंतिज़ार-ए-यार में हम उम्र भर रहे
जैसे नज़र ग़रीब की अल्लाह पर रहे
Allama Iqbal
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Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
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जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
रह गए अश्कों में लख़्त-ए-जिगर आते आते
याद है रोज़-ए-अज़ल उस ने कहा क्या क्या कुछ
न बंद कर इसे फ़स्ल-ए-बहार में साक़ी
फाड़ ही डालूँगा मैं इक दिन नक़ाब-ए-रू-ए-यार
ये जिस ने जान दी है नान देगा
दैर-ओ-हरम को छोड़ के ऐ दिल चल बैठो मयख़ाने में
होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ
जिसे ज़ौक़-ए-बादा-परस्ती नहीं है
जौर-ए-अफ़्लाक बस-कि झेले हैं
दुनिया में यही चोर बनाता है असस को
कली जो गुल की चटक रही है तबीअ'त अपनी खटक रही है