आया पयाम-ए-वस्ल यकायक जो यार का
मा'लूम ये हुआ कि गए दिन ज़वाल के
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जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
मुसाफ़िराना रहा इस सरा-ए-हस्ती में
जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर
तारिक-ए-दुनिया है जब से 'मुंतही'
करते हैं चैन बैठे हुस्न-ओ-जमाल वाले
बोसा जो माँगा बज़्म में फ़रमाया यार ने
बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव
होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ
नफ़्स-ए-सग-ए-पलीद को गर अपने मारिए
हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह
उस बुत को छोड़ कर हरम-ओ-दैर पर मिटे
है ख़ुशी अपनी वही जो कुछ ख़ुशी है आप की