सुबह की सुबह Poetry

दस्तूर साज़ी की कोशिश

रज़ा नक़वी वाही

मेरे आसमान के चाँद को ख़बर दो

मर्यम तस्लीम कियानी

सुब्ह-ए-सादिक़

दर्शन सिंह

हक़ीक़त है कि नन्हा सा दिया हूँ

वलीउल्लाह वली

मुँह अंधेरे जगा के छोड़ गई

अहमद मुश्ताक़

मुद्दतों बा'द वो गलियाँ वो झरोके देखे

महमूद शाम

राब्ता टूट न जाए कहीं ख़ुद-बीनी से

असरार ज़ैदी

ये लाल डिबिया में जो पड़ी है वो मुँह दिखाई पड़ी रहेगी

आमिर अमीर

ख़्वाबों ख़यालों की अप्सरा

दौर आफ़रीदी

बातें करो

ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी

मोहब्बत पर यक़ीं था जब

हमीदा शाहीन

दिल्ली पे क़ुर्बान

इज़हार मलीहाबादी

सुब्ह बिछड़ कर शाम का व'अदा शाम का होना सहल नहीं

किस तवक़्क़ो' पे शरीक-ए-ग़म-ए-याराँ होंगे

दिल महव-ए-तमाशा-ए-लब-ए-बाम नहीं है

रास आने लगी थी तन्हाई

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

असरार बड़ी देर में ये मुझ पे खुला है

ज़ुल्फ़िक़ार अहसन

बे-सबात सुब्ह शाम और मिरा वजूद

ज़ुल्फ़िक़ार अहमद ताबिश

निकला हूँ शहर-ए-ख़्वाब से ऐसे अजीब हाल में

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

शाम-ए-ग़म याद नहीं सुब्ह-ए-तरब याद नहीं

ज़ुहैर कंजाही

मनकूहा

ज़ुबैर रिज़वी

पूछ न हम से कैसे तुझ तक नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ लाए हम

ज़ुबैर रिज़वी

हमारी गर्दिश-ए-पा रास्तों के काम आई

ज़ुबैर रिज़वी

तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

आरिज़ से तिरे सुब्ह की तोहमत न उठेगी

ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब

तसलसुल

ज़िया जालंधरी

ख़ुद को समझा है फ़क़त वहम-ओ-गुमाँ भी हम ने

ज़िया जालंधरी

इंसाफ़

ज़ेहरा निगाह

ये हुक्म है कि अँधेरे को रौशनी समझो

ज़ेहरा निगाह

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