सुबह की सुबह Poetry (page 22)

सूली चढ़े जो यार के क़द पर फ़िदा न हो

इम्दाद इमाम असर

लोग जब तेरा नाम लेते हैं

इम्दाद इमाम असर

किसी का दिल को रहा इंतिज़ार सारी रात

इम्दाद इमाम असर

मेरे आगे तज़्किरा माशूक़-ओ-आशिक़ का बुरा

इमदाद अली बहर

मैं सियह-रू अपने ख़ालिक़ से जो ने'मत माँगता

इमदाद अली बहर

जब दस्त-बस्ता की नहीं उक़्दा-कुशा नमाज़

इमदाद अली बहर

बशर रोज़-ए-अज़ल से शेफ़्ता है शान-ओ-शौकत का

इमदाद अली बहर

मिरा सीना है मशरिक़ आफ़्ताब-ए-दाग़-ए-हिज्राँ का

इमाम बख़्श नासिख़

अपना अपना दुख बतलाना होता है

इलियास बाबर आवान

रात भर दर्द की बरसात में धोई हुई सुब्ह

इफ़्तिख़ार बुख़ारी

भर आईं आँखें किसी भूली याद से शाम के मंज़र में

इफ़्तिख़ार बुख़ारी

कुछ भी नहीं कहीं नहीं ख़्वाब के इख़्तियार में

इफ़्तिख़ार आरिफ़

ख़्वाब-ए-देरीना से रुख़्सत का सबब पूछते हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

बस्ती भी समुंदर भी बयाबाँ भी मिरा है

इफ़्तिख़ार आरिफ़

शौक़

इफ़्तिख़ार आज़मी

छलकती आए कि अपनी तलब से भी कम आए

इब्न-ए-सफ़ी

'मीर' से बैअत की है तो 'इंशा' मीर की बैअत भी है ज़रूर

इब्न-ए-इंशा

ये सराए है

इब्न-ए-इंशा

ये कौन आया

इब्न-ए-इंशा

ये बातें झूटी बातें हैं

इब्न-ए-इंशा

लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए

इब्न-ए-इंशा

जंगल जंगल शौक़ से घूमो दश्त की सैर मुदाम करो

इब्न-ए-इंशा

हम उन से अगर मिल बैठे हैं क्या दोश हमारा होता है

इब्न-ए-इंशा

हम जंगल के जोगी हम को एक जगह आराम कहाँ

इब्न-ए-इंशा

दिल सी चीज़ के गाहक होंगे दो या एक हज़ार के बीच

इब्न-ए-इंशा

अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले

इब्न-ए-इंशा

सब मुतमइन थे सुब्ह का अख़बार देख कर

हुसैन ताज रिज़वी

कभी वफ़ूर-ए-तमन्ना कभी मलामत ने

हुसैन आबिद

सूरत-ए-सब्ज़ा-ए-बे-गाना चमन से गुज़रे

हुरमतुल इकराम

साए चमक रहे थे सियासत की बात थी

हिमायत अली शाएर

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