'मीर' से बैअत की है तो 'इंशा' मीर की बैअत भी है ज़रूर
शाम को रो रो सुब्ह करो अब सुब्ह को रो रो शाम करो
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किस को पार उतारा तुम ने किस को पार उतारोगे
ऐ मिरे सोच-नगर की रानी
ये सराए है
दीदा ओ दिल ने दर्द की अपने बात भी की तो किस से की
बे तेरे क्या वहशत हम को तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियाँ
वो रातें चाँद के साथ गईं वो बातें चाँद के साथ गईं
एक लड़का
इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें
देख हमारी दीद के कारन कैसा क़ाबिल-ए-दीद हुआ
हमें तुम पे गुमान-ए-वहशत था हम लोगों को रुस्वा किया तुम ने
दिल इश्क़ में बे-पायाँ सौदा हो तो ऐसा हो