रात आ कर गुज़र भी जाती है
इक हमारी सहर नहीं होती
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देख हमारी दीद के कारन कैसा क़ाबिल-ए-दीद हुआ
हम किसी दर पे न ठिटके न कहीं दस्तक दी
ये कौन आया
दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो
हम जंगल के जोगी हम को एक जगह आराम कहाँ
हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता
अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले
कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो
इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें
फिर शाम हुई