पीरी हुई शबाब से उतरा झटक गया
शाएर हूँ मेरा मिस्रा-ए-सानी लटक गया
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तेरे बाज़ार-ए-दहर में गर्दूं
सदा-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे नहीं आती
दर पे उस शोख़ के जब जा बैठा
ये जिस ने जान दी है नान देगा
दुनिया का माल मुफ़्त में चखने के वास्ते
तुफ़ैल-ए-रूह मिरा जिस्म-ए-ज़ार बाक़ी है
कभी हरम में कभी बुत-कदे को जाता हूँ
करते हैं चैन बैठे हुस्न-ओ-जमाल वाले
नफ़्स-ए-सग-ए-पलीद को गर अपने मारिए
है दौलत-ए-हुस्न पास तेरे
हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह
मुझ सा आशिक़ आप सा माशूक़ तब होवे नसीब