ख़याल उस सफ़-ए-मिज़्गाँ का दिल में आएगा
हमारे मुल्क में भरती सिपाह की होगी
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मुमकिन मुझे जो हो बे-रिया हो
तारिक-ए-दुनिया है जब से 'मुंतही'
सिखला रहा हूँ दिल को मोहब्बत के रंग-ढंग
बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव
होते होते न हुआ मिसरा-ए-रंगीं मौज़ूँ
जला कर ज़ाहिदों को मय-कशों को शाद करते हैं
हो जाती है हवा क़फ़स-ए-तन से छट के रूह
न बंद कर इसे फ़स्ल-ए-बहार में साक़ी
फ़ुग़ान-ओ-आह से पैदा किया दर्द-ए-जुदाई को
जान दी उन पे मर-मिटे सिसके
जिस क़दर वो मुझ से बिगड़ा मैं भी बिगड़ा उस क़दर
ये जिस ने जान दी है नान देगा