ये फ़क़त आप की इनायत है
वर्ना मैं क्या मिरी हक़ीक़त क्या
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नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है
टलना था मेरे पास से ऐ काहिली तुझे
बुत-परस्ती में न होगा कोई मुझ सा बदनाम
क्या कहूँ तुझ से मोहब्बत वो बला है हमदम
दुबकी हुई थी गुरबा-सिफ़त ख़्वाहिश-ए-गुनाह
किस क़दर मो'तक़िद-ए-हुस्न-ए-मुकाफ़ात हूँ मैं
हम-नशीं देखी नहूसत दास्तान-ए-हिज्र की
है यक़ीं वो न आएँगे फिर भी
उन्हीं का नाम ले ले कर कोई फ़ुर्क़त में मरता है
हँस के कहता है मुसव्विर से वो ग़ारत-गर-ए-होश
मरने के दिन क़रीब हैं शायद कि ऐ हयात
हम को भी क्या क्या मज़े की दास्तानें याद थीं