किस क़दर मो'तक़िद-ए-हुस्न-ए-मुकाफ़ात हूँ मैं
दिल में ख़ुश होता हूँ जब रंज सिवा होता है
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अतवार तिरे अहल-ए-ज़मीं से नहीं मिलते
उन्हीं का नाम ले ले कर कोई फ़ुर्क़त में मरता है
हम-नशीं देखी नहूसत दास्तान-ए-हिज्र की
मरने के दिन क़रीब हैं शायद कि ऐ हयात
है यक़ीं वो न आएँगे फिर भी
नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है
हम को भी क्या क्या मज़े की दास्तानें याद थीं
क्या कहूँ तुझ से मोहब्बत वो बला है हमदम
ये फ़क़त आप की इनायत है
बुत-परस्ती में न होगा कोई मुझ सा बदनाम
लब पे कुछ बात आई जाती है