है यक़ीं वो न आएँगे फिर भी
कब निगह सू-ए-दर नहीं होती
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टलना था मेरे पास से ऐ काहिली तुझे
दिल्ली छुटी थी पहले अब लखनऊ भी छोड़ें
मरने के दिन क़रीब हैं शायद कि ऐ हयात
लब पे कुछ बात आई जाती है
बहुत से मुद्दई' निकले मगर जाँ-बाज़ कम निकले
ये फ़क़त आप की इनायत है
नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है
हम को भी क्या क्या मज़े की दास्तानें याद थीं
हँस के कहता है मुसव्विर से वो ग़ारत-गर-ए-होश
क्या कहूँ तुझ से मोहब्बत वो बला है हमदम
किस क़दर मो'तक़िद-ए-हुस्न-ए-मुकाफ़ात हूँ मैं