लब पे कुछ बात आई जाती है
ख़ामुशी मुस्कुराई जाती है
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बहुत से मुद्दई' निकले मगर जाँ-बाज़ कम निकले
है यक़ीं वो न आएँगे फिर भी
उन्हीं का नाम ले ले कर कोई फ़ुर्क़त में मरता है
दुबकी हुई थी गुरबा-सिफ़त ख़्वाहिश-ए-गुनाह
अतवार तिरे अहल-ए-ज़मीं से नहीं मिलते
क्या कहूँ तुझ से मोहब्बत वो बला है हमदम
नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है
टलना था मेरे पास से ऐ काहिली तुझे
दिल्ली छुटी थी पहले अब लखनऊ भी छोड़ें
देखा है मुझे अपनी ख़ुशामद में जो मसरूफ़
बुत-परस्ती में न होगा कोई मुझ सा बदनाम
बा'द तौबा के भी है दिल में ये हसरत बाक़ी