बुत-परस्ती में न होगा कोई मुझ सा बदनाम
झेंपता हूँ जो कहीं ज़िक्र-ए-ख़ुदा होता है
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हम-नशीं देखी नहूसत दास्तान-ए-हिज्र की
मरने के दिन क़रीब हैं शायद कि ऐ हयात
हम को भी क्या क्या मज़े की दास्तानें याद थीं
है यक़ीं वो न आएँगे फिर भी
लब पे कुछ बात आई जाती है
नाला रुकता है तो सर-गर्म-ए-जफ़ा होता है
अतवार तिरे अहल-ए-ज़मीं से नहीं मिलते
हँस के कहता है मुसव्विर से वो ग़ारत-गर-ए-होश
देखा है मुझे अपनी ख़ुशामद में जो मसरूफ़
दुबकी हुई थी गुरबा-सिफ़त ख़्वाहिश-ए-गुनाह
बहुत से मुद्दई' निकले मगर जाँ-बाज़ कम निकले