तुर्रा-ए-काकुल-ए-पेचां रुख़-ए-नूरानी पर
चश्मा-ए-आईना में साँप सा लहराता है
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नहीं मिलता दिला हम को निशाँ तक
क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
कौन सय्याद इधर बहर-ए-शिकार आता है
तर्क इन दिनों जो यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद है
जब से देखा है बना गोश-ए-क़मर में तिनका
है दिल को इस तरह से मिरे यार की तलाश
अपने ही दम से है चर्चा कुफ़्र और इस्लाम का
कभी इधर जो सग-ए-कू-ए-यार आ निकला