न काफ़िर से ख़ल्वत न ज़ाहिद से उल्फ़त
हम इक बज़्म में थे ये सब से जुदा थे
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यही कहती लैली-ए-सोख़्ता-जाँ नहीं खाती अदब से ख़ुदा की क़सम
हुए आज़िम-ए-मुल्क-ए-अदम जो 'हवस' तो ख़ुशी ये हुई थी कि ग़म से छुटे
उस परी-रू ने न मुझ से है निबाही क्या करूँ
न पाया वक़्त ऐ ज़ाहिद कोई मैं ने इबादत का
या ख़फ़ा होते थे हम तो मिन्नतें करते थे आप
मैं न समझा बुलबुल बे-बाल-ओ-पर ने क्या कहा
हम गए थे उस से करते शिकवा-ए-दर्द-ए-फ़िराक़
रंग-ए-गुल-ए-शगुफ़्ता हूँ आब-ए-रुख़-ए-चमन हूँ मैं
सुनता हूँ न कानों से न कुछ मुँह से हूँ बकता
माथे पे लगा संदल वो हार पहन निकले
देखें क्या अब के असीरी हमें दिखलाती है
नित जी ही जी में इश्क़ के सदमे उठाइयो