हम गए थे उस से करते शिकवा-ए-दर्द-ए-फ़िराक़
मुस्कुरा कर उस को देखा सब गिला जाता रहा
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माथे पे लगा संदल वो हार पहन निकले
तू जो पड़ा फिरता है आज कहीं कल कहीं
जवानी याद हम को अपनी फिर बे-इख़्तियार आई
हुए आज बूढ़े जवानी में क्या थे
हम से वारफ़्ता उल्फ़त हैं बहुत कम पैदा
क्या मज़ा हो जो किसी से तुझे उल्फ़त हो जाए
देखें क्या अब के असीरी हमें दिखलाती है
हुए आज़िम-ए-मुल्क-ए-अदम जो 'हवस' तो ख़ुशी ये हुई थी कि ग़म से छुटे
जंगलों में जुस्तुजू-ए-क़ैस-ए-सहराई करूँ
ऐ आफ़्ताब हादी-ए-कू-ए-निगार हो
उस परी-रू ने न मुझ से है निबाही क्या करूँ