हवस हम पार होएँ क्यूँकि दरिया-ए-मोहब्बत से
क़ज़ा ने बादबान-ए-कशती-ए-तदबीर को तोड़ा
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रंग-ए-गुल-ए-शगुफ़्ता हूँ आब-ए-रुख़-ए-चमन हूँ मैं
मुज़्दा ये सबा उस बुत-ए-बे-बाक को पहुँचा
यही कहती लैली-ए-सोख़्ता-जाँ नहीं खाती अदब से ख़ुदा की क़सम
दिल में इक इज़्तिराब बाक़ी है
हम गए थे उस से करते शिकवा-ए-दर्द-ए-फ़िराक़
क्या मज़ा हो जो किसी से तुझे उल्फ़त हो जाए
हमारी देखियो ग़फ़लत न समझे वाए नादानी
क्या दिन थे जब छुप छुप कर तुम पास हमारे आते थे
न पाया वक़्त ऐ ज़ाहिद कोई मैं ने इबादत का
हम से वारफ़्ता उल्फ़त हैं बहुत कम पैदा
हुए आज़िम-ए-मुल्क-ए-अदम जो 'हवस' तो ख़ुशी ये हुई थी कि ग़म से छुटे