न पाया वक़्त ऐ ज़ाहिद कोई मैं ने इबादत का
शब-ए-हिज्राँ हुई आख़िर तो सुब्ह-ए-इंतिज़ार आई
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क्या मज़ा हो जो किसी से तुझे उल्फ़त हो जाए
उस परी-रू ने न मुझ से है निबाही क्या करूँ
यही कहती लैली-ए-सोख़्ता-जाँ नहीं खाती अदब से ख़ुदा की क़सम
लुत्फ़-ए-शब-ए-मह ऐ दिल उस दम मुझे हासिल हो
मैं कहा बोलना शब ग़ैर से था तुम को क्या
माथे पे लगा संदल वो हार पहन निकले
हँसते थे मिरे हाल को जो यार देख कर
हम गए थे उस से करते शिकवा-ए-दर्द-ए-फ़िराक़
हवस हम पार होएँ क्यूँकि दरिया-ए-मोहब्बत से
हुए आज़िम-ए-मुल्क-ए-अदम जो 'हवस' तो ख़ुशी ये हुई थी कि ग़म से छुटे
जंगलों में जुस्तुजू-ए-क़ैस-ए-सहराई करूँ
सुनता हूँ न कानों से न कुछ मुँह से हूँ बकता