लुत्फ़-ए-शब-ए-मह ऐ दिल उस दम मुझे हासिल हो
इक चाँद बग़ल में हो इक चाँद मुक़ाबिल हो
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माथे पे लगा संदल वो हार पहन निकले
जवानी याद हम को अपनी फिर बे-इख़्तियार आई
सहरा में 'हवस' ख़ार-ए-मुग़ीलाँ की मदद से
दिल में इक इज़्तिराब बाक़ी है
क्या मज़ा हो जो किसी से तुझे उल्फ़त हो जाए
मुज़्दा ये सबा उस बुत-ए-बे-बाक को पहुँचा
न पाया वक़्त ऐ ज़ाहिद कोई मैं ने इबादत का
ज़ाहिद का दिल न ख़ातिर-ए-मय-ख़्वार तोड़िए
हुए आज़िम-ए-मुल्क-ए-अदम जो 'हवस' तो ख़ुशी ये हुई थी कि ग़म से छुटे
मैं कहा बोलना शब ग़ैर से था तुम को क्या
देखें क्या अब के असीरी हमें दिखलाती है
या ख़फ़ा होते थे हम तो मिन्नतें करते थे आप