सहरा में 'हवस' ख़ार-ए-मुग़ीलाँ की मदद से
बारे मिरा ख़ूँ हर ख़स-ओ-ख़ाशाक को पहुँचा
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हुए आज बूढ़े जवानी में क्या थे
सद-चाक किया पैरहन-ए-गुल को सबा ने
माथे पे लगा संदल वो हार पहन निकले
या ख़फ़ा होते थे हम तो मिन्नतें करते थे आप
जंगलों में जुस्तुजू-ए-क़ैस-ए-सहराई करूँ
क्या मज़ा हो जो किसी से तुझे उल्फ़त हो जाए
बे-वज्ह नहीं गर्द परेशाँ पस-ए-महमिल
हुए आज़िम-ए-मुल्क-ए-अदम जो 'हवस' तो ख़ुशी ये हुई थी कि ग़म से छुटे
सब हम-सफ़ीर छोड़ के तन्हा चले गए
लुत्फ़-ए-शब-ए-मह ऐ दिल उस दम मुझे हासिल हो
हमारी देखियो ग़फ़लत न समझे वाए नादानी