सुनता हूँ न कानों से न कुछ मुँह से हूँ बकता
ख़ाली है जगह महफ़िल-ए-तस्वीर में मेरी
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उस परी-रू ने न मुझ से है निबाही क्या करूँ
सहरा में 'हवस' ख़ार-ए-मुग़ीलाँ की मदद से
हुए आज बूढ़े जवानी में क्या थे
हमारी देखियो ग़फ़लत न समझे वाए नादानी
क्या दिन थे जब छुप छुप कर तुम पास हमारे आते थे
माथे पे लगा संदल वो हार पहन निकले
हरगिज़ न मिरे महरम-ए-हमराज़ हुए तुम
जंगलों में जुस्तुजू-ए-क़ैस-ए-सहराई करूँ
जवानी याद हम को अपनी फिर बे-इख़्तियार आई
हवस हम पार होएँ क्यूँकि दरिया-ए-मोहब्बत से
न पाया खोज बरसों नक़्श-ए-पा-ए-रफ़्तगाँ ढूँढे