या ख़फ़ा होते थे हम तो मिन्नतें करते थे आप
या ख़फ़ा हैं हम से वो और हम मना सकते नहीं
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दिल में इक इज़्तिराब बाक़ी है
हँसते थे मिरे हाल को जो यार देख कर
नित जी ही जी में इश्क़ के सदमे उठाइयो
ऐ आफ़्ताब हादी-ए-कू-ए-निगार हो
हरगिज़ न मिरे महरम-ए-हमराज़ हुए तुम
सब हम-सफ़ीर छोड़ के तन्हा चले गए
तू जो पड़ा फिरता है आज कहीं कल कहीं
रंग-ए-गुल-ए-शगुफ़्ता हूँ आब-ए-रुख़-ए-चमन हूँ मैं
देखें क्या अब के असीरी हमें दिखलाती है
लुत्फ़-ए-शब-ए-मह ऐ दिल उस दम मुझे हासिल हो
माथे पे लगा संदल वो हार पहन निकले