ऐ आफ़्ताब हादी-ए-कू-ए-निगार हो
आए भला कभी तो हमारे भी काम दिन
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देखें क्या अब के असीरी हमें दिखलाती है
मुज़्दा ये सबा उस बुत-ए-बे-बाक को पहुँचा
हुए आज़िम-ए-मुल्क-ए-अदम जो 'हवस' तो ख़ुशी ये हुई थी कि ग़म से छुटे
हरगिज़ न मिरे महरम-ए-हमराज़ हुए तुम
मैं न समझा बुलबुल बे-बाल-ओ-पर ने क्या कहा
जंगलों में जुस्तुजू-ए-क़ैस-ए-सहराई करूँ
न पाया खोज बरसों नक़्श-ए-पा-ए-रफ़्तगाँ ढूँढे
शौक़-ए-ख़राश-ए-ख़ार मिरे दिल में रह गया
उस परी-रू ने न मुझ से है निबाही क्या करूँ
दिल में इक इज़्तिराब बाक़ी है
हवस हम पार होएँ क्यूँकि दरिया-ए-मोहब्बत से