मक़्तल Poetry

14-अगस्त

हबीब जालिब

बहार बन के जब से वो मिरे जहाँ पे छाए हैं

वो जिस को देखने इक भीड़ उमडी थी सर-ए-मक़्तल

ज़ुबैर रिज़वी

वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए

ज़ुबैर रिज़वी

क़सीदे ले के सारे शौकत-ए-दरबार तक आए

ज़ुबैर रिज़वी

शम-ए-हक़ शोबदा-ए-हर्फ़ दिखा कर ले जाए

ज़िया जालंधरी

ये क्या तहरीर पागल लिख रहा है

ज़फ़र सहबाई

इक नदी में सैकड़ों दरिया की तुग़्यानी मिली

ज़फर इमाम

मिला है तपता सहरा देखने को

यज़दानी जालंधरी

पेश वो हर पल है साहब

वक़ार सहर

बुलाए जाते हैं मक़्तल में हम सज़ा के लिए

वामिक़ जौनपुरी

इश्क़ की राह में यूँ हद से गुज़र मत जाना

वाली आसी

आज फिर सर-ए-मक़्तल दे के ख़ुद लहू हम ने

वाहिद प्रेमी

दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है

वहीद अख़्तर

राह जो चलनी है उस में ख़ूबियाँ कोई नहीं

उर्मिलामाधव

ज़हर में बुझती हुई बेल है दीवार के साथ

उम्मीद ख़्वाजा

आईना-ए-वहशत को जिला जिस से मिली है

उम्मीद फ़ाज़ली

वक़्त के मक़्तल में हम हैं दोस्तो

तुफ़ैल बिस्मिल

जो भी तेरी आँख को भा जाएगा

तुफ़ैल बिस्मिल

ताइर-ए-ख़ुश-रंग को बे-बाल-ओ-पर देखेगा कौन

तुफ़ैल अहमद मदनी

गर्द-आलूद दरीदा चेहरा यूँ है माह ओ साल के ब'अद

तौसीफ़ तबस्सुम

सिसकती मज़लूमियत के नाम

तारिक़ क़मर

कभी न आएँगे जाने वाले

तारिक़ क़मर

हवा रुकी है तो रक़्स-ए-शरर भी ख़त्म हुआ

तारिक़ क़मर

लहू को पालते फिरते हैं हम हिना की तरह

तारिक़ मसऊद

अपने काँधे पे लिए फिरती है एहसास का बोझ

तनवीर सामानी

रोज़ तब्दील हुआ है मिरे दिल का मौसम

तनवीर सामानी

फ़िशार-ए-हुस्न से आग़ोश-ए-तंग महके है

तनवीर अहमद अल्वी

ये जो कुछ आज है कल तो नहीं है

ताज भोपाली

यही नहीं कि मिरा दिल ही मेरे बस में न था

सुरूर बाराबंकवी

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