मक़्तल Poetry (page 6)
अब भी रौशन हैं
अली सरदार जाफ़री
अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ गुल होती जाती है
अली सरदार जाफ़री
अक़ीदे बुझ रहे हैं शम-ए-जाँ ग़ुल होती जाती है
अली सरदार जाफ़री
नाम ओ नसब
अली अकबर नातिक़
हिसार-ए-मक़्तल-ए-जाँ में लहू लहू मैं था
आलमताब तिश्ना
असीर-ए-दश्त-ए-बला का न माजरा कहना
आलमताब तिश्ना
अब भी ज़र्रों पे सितारों का गुमाँ है कि नहीं
आलमताब तिश्ना
आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
आलमताब तिश्ना
ऐ इश्क़ कहीं ले चल
अख़्तर शीरानी
वक़्त बे-रहम है मक़्तल की ज़मीनों जैसा
अख़तर शाहजहाँपुरी
तुम हो या छेड़ती है याद-ए-सहर कोई तो है
अख़्तर सईद ख़ान
शनासाई
अख़्तर पयामी
सू-ए-मक़्तल कोई दम साथ चले
अख्तर लख़नवी
मक़्तल की बाज़दीद
अख़्तर हुसैन जाफ़री
मक़्तल
अख़लाक़ अहमद आहन
सुर्ख़-रू सब को सर-ए-मक़्तल नज़र आने लगे
ऐनुद्दीन आज़िम
पता अब तक नहीं बदला हमारा
अहमद मुश्ताक़
नामा-ए-जानाँ
अहमद फ़राज़
वहशतें बढ़ती गईं हिज्र के आज़ार के साथ
अहमद फ़राज़
उस मंज़र-ए-सादा में कई जाल बंधे थे
अहमद फ़राज़
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
अहमद फ़राज़
न हरीफ़-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म शब-ए-इंतिज़ार कोई तो हो
अहमद फ़राज़
मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला
अहमद फ़राज़
जिस सम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो
अहमद फ़राज़
जब यार ने रख़्त-ए-सफ़र बाँधा कब ज़ब्त का पारा उस दिन था
अहमद फ़राज़
जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है
अहमद फ़राज़
हर कोई तुर्रा-ए-पेचाक पहन कर निकला
अहमद फ़राज़
गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा
अहमद फ़राज़
अश्क आँखों में लिए आठों पहर देखेगा कौन
अफ़ज़ल इलाहाबादी
वही जो हया थी निगार आते आते
अफ़सर इलाहाबादी
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