आती है धार उन के करम से शुऊर में
दुश्मन मिले हैं दोस्त से बेहतर कभी कभी
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जो तिरे दर से उठा फिर वो कहीं का न रहा
ये दौर मुझ से ख़िरद का वक़ार माँगे है
एक दीवाने को इतना ही शरफ़ क्या कम है
सफ़र तवील सही हासिल-ए-सफ़र क्या था
अब धनक के रंग भी उन को भले लगते नहीं
वो जिएँ क्या जिन्हें जीने का हुनर भी न मिला
हर इक जन्नत के रस्ते हो के दोज़ख़ से निकलते हैं
जब्र-ए-हालात का तो नाम लिया है तुम ने
तू पयम्बर सही ये मो'जिज़ा काफ़ी तो नहीं
लोग तन्हाई का किस दर्जा गिला करते हैं
मय-कशी के भी कुछ आदाब बरतना सीखो
दिल-दादगान-ए-लज़्ज़त-ए-ईजाद क्या करें