दर्द-ए-दिल और जान-लेवा पुर्सिशें
एक बीमारी की सौ बीमारियाँ
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अल्लाह नज़र कोई ठिकाना नहीं आता
यही अच्छा है जो इस तरह मिटाए कोई
उन के सितम भी कह नहीं सकते किसी से हम
समझ तो ये कि न समझे ख़ुद अपना रंग-ए-जुनूँ
तुम 'रज़ा' बन के मुसलमान जो काफ़िर ही रहे
क़िस्मत में ख़ुशी जितनी थी हुई और ग़म भी है जितना होना है
हम ने बे-इंतिहा वफ़ा कर के
मायूस ख़ुद-ब-ख़ुद दिल-ए-उम्मीद-वार है
हमीं ने उन की तरफ़ से मना लिया दिल को
बंदिशें इश्क़ में दुनिया से निराली देखें
उस बेवफ़ा से कर के वफ़ा मर-मिटा 'रज़ा'