हम ने बे-इंतिहा वफ़ा कर के
बे-वफ़ाओं से इंतिक़ाम लिया
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क़िस्मत में ख़ुशी जितनी थी हुई और ग़म भी है जितना होना है
उन के सितम भी कह नहीं सकते किसी से हम
यही अच्छा है जो इस तरह मिटाए कोई
उस बेवफ़ा से कर के वफ़ा मर-मिटा 'रज़ा'
तुम 'रज़ा' बन के मुसलमान जो काफ़िर ही रहे
बंदिशें इश्क़ में दुनिया से निराली देखें
जो चाहते हो सो कहते हो चुप रहने की लज़्ज़त क्या जानो
समझ तो ये कि न समझे ख़ुद अपना रंग-ए-जुनूँ
अल्लाह नज़र कोई ठिकाना नहीं आता
मायूस ख़ुद-ब-ख़ुद दिल-ए-उम्मीद-वार है