घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा
हम तिरे शहर से जाते हुए मर जाते हैं
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फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता
साँस के शोर को झंकार न समझा जाए
वो चाँद हो कि चाँद सा चेहरा कोई तो हो
झिलमिल से क्या रब्त निकालें कश्ती की तक़दीरों का
इस का मतलब है यहाँ अब कोई आएगा ज़रूर
मैं जिस सुकून से बैठा हूँ इस किनारे पर
हवा-ए-तेज़ तिरा एक काम आख़िरी है
बयाँ अपनी हक़ीक़त कर रहा हूँ
मेरी तन्हाई बढ़ाते हैं चले जाते हैं
ये हम जो हिज्र में उस का ख़याल बाँधते हैं
दिल दुखों के हिसार में आया
शिकस्ता-ख़्वाब-ओ-शिकस्ता-पा हूँ मुझे दुआओं में याद रखना