हमारे जैसे वहाँ किस शुमार में होंगे
कि जिस क़तार में मजनूँ का नाम आख़िरी है
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दर-ए-उफ़ुक़ पे रक़म रौशनी का बाब करें
तिरी मोहब्बत में गुमरही का अजब नशा था
बस एक मोड़ मिरी ज़िंदगी में आया था
निहाल-ए-दर्द ये दिन तुझ पे क्यूँ उतरता नहीं
आँखों तक आ सकी न कभी आँसुओं की लहर
परों में शाम ढलती है
मकीं जब नींद के साए में सुस्ताने लगें 'ताबिश'
एक मुश्किल सी बहर-तौर बनी होती है
तेरी रूह में सन्नाटा है और मिरी आवाज़ में चुप
चाँद का पत्थर बाँध के तन से उतरी मंज़र-ए-ख़्वाब में चुप
फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता