इश्क़ कर के भी खुल नहीं पाया
तेरा मेरा मुआमला क्या है
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आँख पे पट्टी बाँध के मुझ को तन्हा छोड़ दिया है
बैठता उठता था मैं यारों के बीच
ये हम जो हिज्र में उस का ख़याल बाँधते हैं
ये वाहिमे भी अजब बाम-ओ-दर बनाते हैं
सुन रहा हूँ अभी तक मैं अपनी ही आवाज़ की बाज़गश्त
दी है वहशत तो ये वहशत ही मुसलसल हो जाए
तिलिस्म-ए-ख़्वाब से मेरा बदन पत्थर नहीं होता
ये ज़मीं तो है किसी काग़ज़ी कश्ती जैसी
चश्म-ए-नम-दीदा सही ख़ित्ता-ए-शादाब मिरा
अजब सौदा-ए-वहशत है दिल-ए-ख़ुद-सर में रहता है
तेरी रूह में सन्नाटा है और मिरी आवाज़ में चुप
दर-ए-उफ़ुक़ पे रक़म रौशनी का बाब करें