झोंके के साथ छत गई दस्तक के साथ दर गया
ताज़ा हवा के शौक़ में मेरा तो सारा घर गया
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दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं
कोई मिलता नहीं ये बोझ उठाने के लिए
तेरी आँखों से अपनी तरफ़ देखना भी अकारत गया
वो कौन है जो पस-ए-चश्म-ए-तर नहीं आता
उस का ख़याल ख़्वाब के दर से निकल गया
ये हम जो हिज्र में उस का ख़याल बाँधते हैं
चाँद का पत्थर बाँध के तन से उतरी मंज़र-ए-ख़्वाब में चुप
तू भी ऐ शख़्स कहाँ तक मुझे बर्दाश्त करे
ये हम को कौन सी दुनिया की धुन आवारा रखती है
पाँव पड़ता हुआ रस्ता नहीं देखा जाता
रम्ज़-गर भी गया रम्ज़-दाँ भी गया
हमारे जैसे वहाँ किस शुमार में होंगे