ख़ूब इतना था कि दीवार पकड़ कर निकला
उस से मिलने के लिए सूरत-ए-साया गया मैं
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तेरी रूह में सन्नाटा है और मिरी आवाज़ में चुप
रम्ज़-गर भी गया रम्ज़-दाँ भी गया
पानी आँख में भर कर लाया जा सकता है
हिज्र को हौसला और वस्ल को फ़ुर्सत दरकार
शजर समझ के मिरा एहतिराम करते हैं
फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता
परों में शाम ढलती है
फिर इस के ब'अद ये बाज़ार-ए-दिल नहीं लगना
एक मुद्दत से मिरी माँ नहीं सोई 'ताबिश'
कोई मिलता नहीं ये बोझ उठाने के लिए
पहले तो हम छान आए ख़ाक सारे शहर की
ये किस के ख़ौफ़ का गलियों में ज़हर फैल गया